काशी कहें तोह ऐसा लगे
जैसे हो केवल धर्म में सराबोर।
वाराणसी कुछ ऐसा लगे
जैसे प्राचार्य के कक्ष की औपचारिकता।
जब बनारस होंठों को छुए
तब लगे की कुछ बात है।
पहलवान की लस्सी
से संकट मोचन तक ,
अस्सी घाट की मसाला चाय
से चिल्लम तक ,
सुबह की कचौड़ी जलेबी
से दिन भर के गोलगप्पों तक ,
चाय की अड़ी पे चुस्कियों
से पान की गुमटियों तक,
रेशम के धागों
से उनकी साड़ियों तक ,
गोदौलिया के विश्वनाथ मंदिर
से दशाश्वमेध, मणिकर्णिका तक,
अपने आप की खोज में
आते हैं सब बनारस ,
और होकर रह जाते हैं
बस, ' बनारस ' .
बनारस नहीं है कोई शहर
बल्कि एक एहसास है ,
जब होठों को छुए
तब लगे क्या स्वाद है।
जब ' बनारस' होठों को छुए
तब लगे ब्रह्माण्ड है।
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