अभी कल ही की तो बात थी
जब स्कूल जाने की ज़िद्द ने
पीलिया ग्रसित कर दिया था,
कल ही शायद पेंसिल और फिर
कलम से लिखने की
उत्सुकता बढ़ती जा रही थी,
फिर यह भी कल ही की बात थी
कि अगले रोज़ स्कूल
जाने की इच्छा ही ख़त्म हो गयी,
माँ पिताजी परेशान कि हुआ क्या?
किसी ने कुछ कहा क्या?
नहीं बस यूँही मन नहीं हो रहा।
फिर विश्वविद्यालय के दरवाज़े
तक भी पहुँच ही गए।
विदेशी भाषा के विद्यार्थी बन गए।
कल ही की बात है कि
उस क्लासमेट को देख कर गुस्सा आया
जिसने स्पोर्ट्स कोटे में एडमिशन पाया,
कोई बात नहीं ऐसा खुद को समझाया
जब फ्रांस जाने की बारी आयी,
क्या कॉमर्स पढ़कर उस वक़्त
जा पाती विदेश? नहीं, कत्तई नहीं।
सात महीने गुज़ारे एक नई सी दुनिया में
और कई बदलाव भी आये,
शायद कल ही की बात है
कि शोध करने में व्यस्त हुए,
थीसिस जमा करके अब
बेरोज़गार भी बने रहे।
और एक दिन फिर वाइवा भी हो गया
अब तो डॉक्टर भी बन गए।
बचपन की वह चाह स्कूल जाने की
दीदी लोग और भैया को देखकर किताबें पढ़ने की
शायद कल ही की तो बात थी।
और आज भी इतना है पढ़ने को
समझ से परे है की शुरू कहाँ से करें
और अंत तो कभी आएगा ही नहीं।