इन काली अँधेरी रातों से
क्यों हमें डर लगता है?
इन ज़ुल्म की ज़ंजीरों में
क्यों यह मन जकड़ा है?
क्यों जो सबकी सोच हो
हम भी उसी दिशा बढ़ें?
ऐसा किसने कहा है कि
अल्पसंख्यकों की कोई जगह नहीं?
हम क्यों माने जो सबकी हो सहमति
की अपने असहमति का कोई वजूद नहीं?
क्यों हम भेड़चाल के बंधनों
को गहराई दें?
सबकी अपनी सोच है वो
इस सच्चाई से क्यों घबराएं?
ऐसा क्या डर के पल्लू में बंधना ,
जब इससे ही अपना दम घुटे ?
यह अँधेरा हमें इतना क्यों डराता है?
प्रकृति का नियम तो यही बतलाता है
कि गहरी अँधेरी रात का साथ
अगले पल सुनेहरा सूरज ही देता है।
क्यों हमें डर लगता है?
इन ज़ुल्म की ज़ंजीरों में
क्यों यह मन जकड़ा है?
क्यों जो सबकी सोच हो
हम भी उसी दिशा बढ़ें?
ऐसा किसने कहा है कि
अल्पसंख्यकों की कोई जगह नहीं?
हम क्यों माने जो सबकी हो सहमति
की अपने असहमति का कोई वजूद नहीं?
क्यों हम भेड़चाल के बंधनों
को गहराई दें?
सबकी अपनी सोच है वो
इस सच्चाई से क्यों घबराएं?
ऐसा क्या डर के पल्लू में बंधना ,
जब इससे ही अपना दम घुटे ?
यह अँधेरा हमें इतना क्यों डराता है?
प्रकृति का नियम तो यही बतलाता है
कि गहरी अँधेरी रात का साथ
अगले पल सुनेहरा सूरज ही देता है।
करें कुछ रात की बात,
ReplyDeleteजो है कलुषित कलंकित दिव्या प्रताड़ना से उदास.
कहते हैं रात प्रकाश से क्रुद्ध है, ज्ञान के विरुद्ध है.
फिर क्यों है इसमें सुबह की प्यास.
करें कुछ रात की बात.