बात थी ये उन दिनों की
जब घर में रहना लोगों का हो रहा था दुर्भर।
आदत जो पड़ गयी थी,
एक ऐसे जीवन शैली की
जहां सब भाग रहे थे,
कहाँ, किसके पीछे,
भई , मेरे समझ के ये तो परे था।
अब तो परिस्थिति ने ही
लगा डाली पाबंदी।
कैसे बिताएं समय
बन बैठा एक बड़ा सवाल।
क्या इतना मुश्किल था,
खुद के साथ दो पल बिताना?
अपनों के साथ बैठ कर बातें करना ?
सुबह सुबह की चाय शान्ति में पीना ?
हंसी के ठहाके लगाना ?
अपनों के साथ मिल कर घर में हाथ बटाना ?
बात तो ये भी मज़ेदार थी
कि अपने काम खुद ही करने थे।
बहुत ही अच्छा मौका था
समझने का
काम कोई बड़ा या छोटा नहीं था,
काम तो बस अपना ही था।
कैसी आराम तलबी छा गयी थी
की दूसरों पे निर्भरता बढ़ती ही जा रही थी।
अब जाकर घर में आने वाले
उन सभी मददकर्मियों की कीमत समझ में आयी( शायद)
अब उन्हें भी इंसान समझना पड़ा।
बस अब एक उम्मीद जगी
कि इंसानियत भी रहे जगी ।
जब घर में रहना लोगों का हो रहा था दुर्भर।
आदत जो पड़ गयी थी,
एक ऐसे जीवन शैली की
जहां सब भाग रहे थे,
कहाँ, किसके पीछे,
भई , मेरे समझ के ये तो परे था।
अब तो परिस्थिति ने ही
लगा डाली पाबंदी।
कैसे बिताएं समय
बन बैठा एक बड़ा सवाल।
क्या इतना मुश्किल था,
खुद के साथ दो पल बिताना?
अपनों के साथ बैठ कर बातें करना ?
सुबह सुबह की चाय शान्ति में पीना ?
हंसी के ठहाके लगाना ?
अपनों के साथ मिल कर घर में हाथ बटाना ?
बात तो ये भी मज़ेदार थी
कि अपने काम खुद ही करने थे।
बहुत ही अच्छा मौका था
समझने का
काम कोई बड़ा या छोटा नहीं था,
काम तो बस अपना ही था।
कैसी आराम तलबी छा गयी थी
की दूसरों पे निर्भरता बढ़ती ही जा रही थी।
अब जाकर घर में आने वाले
उन सभी मददकर्मियों की कीमत समझ में आयी( शायद)
अब उन्हें भी इंसान समझना पड़ा।
बस अब एक उम्मीद जगी
कि इंसानियत भी रहे जगी ।