Saturday, 28 March 2020

कोरोना के दिन

बात थी ये उन दिनों की
जब घर में रहना लोगों का हो रहा था दुर्भर।
आदत जो पड़ गयी थी,
एक ऐसे जीवन शैली की
जहां सब भाग रहे थे,
कहाँ, किसके पीछे,
भई , मेरे समझ के ये तो परे था।

अब तो परिस्थिति ने ही
लगा डाली पाबंदी।
कैसे बिताएं समय
बन बैठा एक बड़ा सवाल।

क्या इतना मुश्किल था,
खुद के साथ दो पल बिताना?
अपनों के साथ बैठ कर बातें करना ?
सुबह सुबह की चाय शान्ति में पीना ?
हंसी के ठहाके लगाना ?
अपनों के साथ मिल कर घर में हाथ बटाना ?


बात  तो ये भी मज़ेदार थी
कि अपने काम खुद ही करने थे।

बहुत ही अच्छा मौका था
समझने का
काम कोई बड़ा  या छोटा नहीं था,
काम तो बस अपना ही था।

कैसी आराम तलबी छा गयी थी
की दूसरों पे निर्भरता बढ़ती ही जा रही थी।
अब जाकर घर में आने वाले
उन सभी मददकर्मियों की कीमत समझ में आयी( शायद)
अब उन्हें भी इंसान समझना पड़ा।

बस  अब एक उम्मीद जगी
कि इंसानियत भी रहे जगी । 




Wednesday, 25 March 2020

In Times of Corona

Privileged like us,
have been exercising the luxury
of reading the deeper message of Corona.

Disadvantaged they were then,
attempting to survive,
Disadvantaged they are now,
continuing their attempt of survival.

Sunday, 22 March 2020

In Times of Corona

Uncertainties loomed large,
where human life was at stake,
but only humans
could rectify their own mistake.

Random thoughts or deliberate messages from the universe?

 It's been a while. Almost two years! So much has happened in these two years. Or maybe not.  Let me begin with things of the last year....